यह वही भूमि है जहां पुराणों में वर्णित समुद्र मंथन हुआ. रुद्रयामल तंत्र में शाल्मली वन नाम से वर्णित इसी भूमि पर 14 रत्नों के साथ अमृत कुंभ निकला और इस रूप में ये आदि कुंभ स्थली बनी. इस पावन आदि कुंभ स्थली की पुनर्स्थापना के प्रेरणा पुरूष करपात्री, अग्निहोत्री परमहंस स्वामी चिदात्मन जी महाराज की विशेष इच्छा है कि अर्धकुंभ के इस अनुपम योग में आपके चरण पावन सिमरियाधाम पर पड़े तो आयोजन की दिव्यता और बढ़ जाएगी साथ ही कुंभ स्नान के लिए आने वाले लाखों-लाख श्रद्धालुओं को आपके दर्शन और आशीर्वचनों का प्रसाद भी प्राप्त होगा. कार्यक्रम का विस्तृत विवरण मंगल कार्यक्रम 13.10.2011 गुरूवार - ध्वजारोहण (उद्घाटन) 18.10.2011 मंगलवार- कुंभ पर्व (मेले) की शुरूआत अर्धकुंभ पर्व स्नान (शाही स्नान) 20.10.02011–गुरुवार- कार्तिक कृष्ण राधाष्टमी केंद्रस्नानम गुरू पुष्य सर्वाथ अमृत सिद्धियोग - प्रथम कुंभ पर्व स्नान (शाही स्नान) 26.10.02011–बुधवार- कार्तिक अमावस्या - द्वितीय कुंभ पर्व स्नान (शाही स्नान) 04.11.02011–शुक्रवार- कार्तिक शुक्ल अक्षय नवमीं सतयुगादि तृतीय कुंभ पर्व स्नान (शाही स्नान) 17.11.2011 - गुरूवार- अर्धकुंभ पर्व का समापन (2017 में महाकुंभ पर्व में सिमरिया में पुन: मिलने का संकल्प कैसे पहुंचे कुंभस्थली सिमरियाधाम ? सिमरिया बिहार के बेगूसराय जिले में गंगा नदी के मनोरम तट पर स्थित है बिहार की राजधानी पटना से दूरी -70 किलोमीटर पटना से सड़क एवं रेल मार्ग दोनों से सुविधा उपबल्ध बेगूसराय से 13 किलोमीटर बरौना जंक्शन से 11 किलोमीटर मोकामा जंक्शन से 10 किलोमीटर हाथीदाह जंक्शन से 2 किलोमीटर गंगा नदी पर बने ऐतिहासिक राजेन्द्र पुल से ½ किलोमीटर देश के 12 स्थानों पर लगता था कुंभ स्कंध पुराण और रुद्रयामल तंत्र और अन्य अनेक ग्रंथों में वर्णित है कि किसी समय देश 12 स्थानों पर कुंभ का आयोजन होता था, वैदिक युग में सिमरिया (बिहार), गोहाटी (असम), कुरुक्षेत्र (हरियाणा), जगन्नाथपुरी (उड़ीसा), गंगासागर (प. बंगाल), द्वारिका (गुजरात), कुंभकोणम (तमिलनाडु), रामेश्वरम (तमिलनाडु), हरिद्वार (उत्तराखंड), प्रयाग (उत्तर प्रदेश), उज्जैन (मध्य प्रदेश) और नासिक (महाराष्ट्र) इन बारह स्थानों पर पावन महाकुंभपर्वों का आयोजन होता था. लेकिन दुख के साथ ये कहना पड़ता है कि नियति के चक्र, विदेशी कुचक्रों औऱ इन सबसे उपर परंपरा के प्रति भारतीयजनों की उदासीनता के कारण देश के सबसे बड़े इन आयोजनों में से मात्र 4 (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक कुंभ) ही को हम बचा पाए और 8 स्थानों पर लगने वाले कुंभपर्वों का लोप हो गया. सिमरिया है आदि कुंभ स्थली बात बिहार के बेगूसराय में गंगा के पावन तट पर स्थित सिमरिया की करें तो प्रमाणों के आधार पर एक समय तक यहां भी कुंभ के आयोजन की बात सामने आती है. जनक वंश के अंतिम राजा कराल जनक तक यहां ये आयोजन होता रहा. और कालांतर में यहां कार्तिक के महीने में कल्पवास का मेला लगता रहा जो आज भी लगता है और राज्य सरकार ने इसकी महत्ता को देखते हुए इसे राजकीय मेला तक घोषित कर रखा है. विद्वानों की राय में पुराणों में जिस समुद्र मंथन की घटना का जिक्र आता है उसकी केन्द्रीय भूमि मिथिला का यही क्षेत्र थी, ऋग्वेद में जिस सप्त सिंधु क्षेत्र का जिक्र है वो यही क्षेत्र है. इस स्थान से थोड़ी ही दूर भागलपुर में मंदार पर्वत स्थित है जिसे समुद्र मंथन की मथनी बनाया गया था और थोड़ी दूर स्थित बासुकीनाथ धाम भी है जहां समुद्र मंथन में रस्सी बने नागराज बासुकी ने मंथन के बाद विश्राम किया और शिव की पूजा-अर्चऩा की. तीर्थराज प्रयाग जहां कुंभ का आयोजन अबाध होता रहा वो स्थान भी सिमरिया के गंगा तट से 450 - 500 किमी की दूरी पर ही स्थित है. हमारे समय के महान संत महर्षि देवराहा बाबा तो कहते थे जहां तक गंगा का तट है वो सब कुंभ का क्षेत्र है. कल्पवास है कुंभ का अवशेष कहते हैं सिमरिया की इसी भूमि पर देवताओं के बीच अमृत का वितरण किया गया. जन श्रुतियों में ऐसी औऱ भी कई बाते हैं जिसे नकार पाना संभव नहीं और प्रत्यक्ष प्रणाम की बात करें तो कुंभ के अवशेष के रूप में देखे जाने वाले कार्तिक के महीने में लगने वाला कल्पवास का मेला तो आज भी लगता है और इसकी महत्ता से किसी को इऩकार नहीं. शास्त्रीय प्रमाण बताते हैं कि कार्तिक मास की अक्षय नवमी को ही सतयुग का प्राकट्य हुआ जो पंचांग में सतयुगादि के नाम से विख्यात है. लुप्त हो गयी पंरपरा समय चक्र के साथ बदलाव नियति का अभिन्न हिस्सा रहा है और परंपराएं इससे अछूती नहीं रह सकती. कुंभपर्व के साथ भी ऐसा ही हुआ. कई कारणों से कालांतर में सिर्फ चार स्थानों पर ही कुंभपर्व बचा रह पाया औऱ बाकी के आठ स्थानों पर इसका लोप हो गया. हां इतना जरूर हुआ कि जहां-जहां कुंभ पर्व की परंपरा थी वहां कल्पवास का मेला लगता रहा जो आज भी लगा करता है. इस धर्मप्राण देश की तासीर को समझनेवाले कहते हैं कि कुंभपर्व की परंपरा का लोप होना भारत की अभी तक की सबसे बड़ी हानि है. सिर्फ यहीं नही देश के अंदर और बाहर के प्रत्यक्ष और परोक्ष कई आघातों ने धर्म से जुड़े हमारे मूल्यों औऱ परंपराओं को प्रभावित करने की कोशिशें कीं और किसी न किसी रूप में ये आज भी जारी है. पर ये भी सच है कि अपने तप से सर्वमंगल की कामना में रत संतवृंदों और महापुरुषों के सतत् श्रम और स्नेह-आशीर्वाद ने धर्म की इस ध्वजा को उखाड़ने की कोशिशों को हर बार नाकाम किया है. कुंभपर्व की पंरपरा को पुनर्जीवित करने का संकल्प हजारों साल बाद पावन गंगा के निर्मल तट पर परांबा जगदंबा की साधना में रत एक ऐसे ही सिद्ध पुरूष ने लुप्त हो चुकी कुंभपर्व की पंरपरा को पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया है. गंगापुत्र, फलाहारी बाबा, सिमरिया बाबा और न जाने कितने ही नामों से जाने जाने वाले परम आदरणीय करपात्री अग्निहोत्री परमहंस स्वामी चिदात्मन जी महाराज ने देश के संत समाज, प्रबुद्धजनों, समाज-राजनीति के अग्रेसरों और धर्म ध्वजा के वाहकों, संरक्षकों हर किसी से महाकुंभपर्व की पुनर्स्थापना का आह्वान किया है. आर्षग्रंथ, स्मृति, पुराण और ऐतिहासिक प्रमाण कहते हैं कि जब देश के 12 स्थानों पर महाकुंभपर्व लगा करते थे तब जगत जननी जगदंबा की लीला भूमि सिमरिया में लगने वाला महाकुंभपर्व सबसे पहला और प्रमुख कुंभपर्व हुआ करता था. प्रमाणों से ये साबित होता है कि सिमरिया ही ऐतिहासिक समुद्र मंथन की केन्द्र भूमि थी और मंथन से निकले अमृत कलश से इसी स्थान पर देवों के बीच अमृत का वितरण किया गया था. लिहाजा कुंभपर्व की पुनर्स्थापना की पावन शुरूआत बिहार के बेगूसराय जिले में स्थित सिमरिया से किये जाने का संकल्प लिया गया. लेकिन कुंभ स्थल और कुंभ योग की प्रमाणिकता किसी एक व्यक्ति के कह देने से साबित नहीं होती लिहाजा स्वामी चिदात्मन जी महाराज ने अपने विचारों को सर्वसम्मत स्वीकृति के लिए विश्व प्रसिद्ध कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के विद्वत परिषद के सामने विचारार्थ रखा. सिमरिया में 2017 में पूर्णमहाकुंभ का योग इस साल लगने वाले अर्धकुंभपर्व के बाद वर्ष 2017 में सिमरिया में पूर्णमहाकुंभ का योग है और उसके सफलतापूर्वक संपन्न होने के बाद ही कुंभपर्व की पुनर्स्थापना का कार्य पूर्ण माना जाएगा. 2011 का अर्धकुंभपर्व उसी कुंभपर्व की पहली कड़ी है.
टिप्पणियां (0 भेज दिया):
|
|
No comments:
Post a Comment