Wednesday, 8 February 2012
VIVAH KA MAHAAN UDDESHYA
मनुष्यों में पशु की भांति यथेच्छाचार न हो , इन्द्रियलालसा और भोगभाव मर्यादित रहें , भावों में शुद्धि रहे , धीरे धीरे संयम के द्वारा मनुष्य त्याग की ओर बढे , संतानोत्पत्ति द्वारा वंश की रक्षा और पितृ ऋण का शोध हो , प्रेम को केन्द्रीभूत करके उसे पवित्र बनाने का अभ्यास बढे , स्वार्थ का संकोच और परार्थ त्याग की बुध्धि जागृत होकर वैसा ही परार्थ त्यागमय जीवन बने – और अंत में भगवत्व प्राप्ति हो जाय | इन्ही सब उद्देश्यों को लेकर हिन्दू विवाह का विधान है |
विवाह धार्मिक संस्कार है , मोक्षप्राप्ति का एक सोपान है |इससे विलास – वासना का सूत्रपात नहीं होता , बल्कि संयमपूर्ण जीवन का प्रारंभ होता है |इसीसे विवाह में अन्य विषयों के साथ-साथ काल का भी विचार किया गया है |इसमें सर्वप्रधान एक बात है – वह यह है कि कन्या का विवाह रजोदर्शन से पूर्व हो जाना चाहिए |रजोदर्शन सब देशों में एक उम्र में नहीं होता |प्रकृति की भिन्नता के कारण कहीं थोड़ी उम्र में ही हो जाता है तो कहीं कुछ बड़ी अवस्था होने पर होता है |अतएव उम्र का निर्णय अपने देश-काल की स्थिति के अनुसार करना चाहिए , परन्तु रजोदर्शन के पूर्व विवाह हो जाना आवश्यक है |
रजोदर्शन प्रकृति का एक महान संकेत है | इसके द्वारा स्त्री गर्भ-धारण के योग्य हो जाती है और इसी कारण ऋतुकाल में स्त्रियों की काम-वासना बलवती हुआ करती है और वह पुरुष सम्बन्ध की इच्छा करती है |इसी स्वाभाविक वासना को केन्द्रीभूत करने के लिए रजस्वला होने से पूर्व विवाह का विधान किया गया है |स्वामी के आश्रय से स्त्री की कम-वासना इधर-उधर फैलकर दूषित नहीं हो पाती पर विवाह न होने की हालत में वाही वासना अवसर पाकर व्याभिचार के रूप में परिणत हो जाती है , जैसा कि आजकल यूरोप में हो रहा है |वहाँ कुंवारी माताओ की संख्यां जिस प्रकार बढ़ रही है , उसको देखते हुए यह कहना पड़ता है कि वहाँ सतीत्व या तो है ही नहीं और यदि कुछ बचा है तो वह शीघ्र नष्ट हो जायेगा
रजस्वला स्त्री को पुरुषप्राप्ति की जो इच्छा होती है , वह उसे बलात्कार से पुरुष –दर्शन करवाती है | उस समय यदि पति के द्वारा अन्तः करण सुरक्षित नहीं होता तो उसके चित्त पर अनेकों पुरुषों की छाया पड़ती है , जिससे उसका आदर्श सतीत्व नष्ट हो जाता है | ऋतुमती स्त्री के चित्त की स्थिति ठीक फोटो के कैमरे की सी होती है |रितुस्नान करके वह जिस पुरुष को मन से देखती है , उसकी मूर्ति चित्त पर आ जाती है |इसीलिए ऋतुकाल से पहले ही विवाह का जाना अत्यंत आवश्यक है |आदर्श सती वही है , जो या तो पति के सिवा किसी को पुरुष रूप में देखती ही नहीं और यदि देखती भी है तो पिता , भ्राता या पुत्र के रूप में ,पर ऐसा देखनेवाली भी माध्यम श्रेणी की पतिव्रता मानी गयी है —-
उत्तम के अस बस मन माहीं | सपनेहूँ आन पुरुष जग नाहीं ||
मध्यम परपति देखहिं कैसे | भ्राता पिता पुत्र जैसे ||
यह तभी संभव है , जब ऋतुकाल के पूर्व विवाह हो चुका हो और वह ऋतुकाल में पति के संरक्षण में रहे | साधारणतया विवाह के समय कन्या की उम्र तेरह और वर की कम से कम अठारह होनी चाहिए |विवाह करना आवश्यक है और वह बहुत बड़ी उम्र होने के पहले ही कर लेना चाहिए |
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